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न तं जि॑नन्ति ब॒हवो॒ न द॒भ्रा उ॒र्व॑स्मा॒ अदि॑तिः॒ शर्म॑ यंसत्। प्रि॒यः सु॒कृत्प्रि॒य इन्द्रे॑ मना॒युः प्रि॒यः सु॑प्रा॒वीः प्रि॒यो अ॑स्य सो॒मी ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na taṁ jinanti bahavo na dabhrā urv asmā aditiḥ śarma yaṁsat | priyaḥ sukṛt priya indre manāyuḥ priyaḥ suprāvīḥ priyo asya somī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। तम्। जि॒न॒न्ति॒। ब॒हवः॑। न। द॒भ्राः। उ॒रु। अ॒स्मै॒। अदि॑तिः। शर्म॑। यं॒स॒त्। प्रि॒यः। सु॒ऽकृत्। प्रि॒यः। इन्द्रे॑। म॒ना॒युः। प्रि॒यः। सु॒प्र॒ऽअ॒वीः। प्रि॒यः। अ॒स्य॒। सो॒मी ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:25» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रे) अत्यन्त ऐश्वर्य्य होने पर (प्रियः) अन्यों को प्रसन्न करने (सुकृत्) सत्य कर्म्म करने, जनों में (प्रियः) प्रीति करने और प्रियों में (मनायुः) मन के सदृश आचरण करनेवाला धर्म्मयुक्त कर्म्म से (प्रियः) आनन्द और शोक से रहित विद्याओं में (सुप्रावीः) अच्छे प्रकार उत्तम गुणों को प्राप्त विद्वानों में (प्रियः) सुन्दर और (अस्य) इस जगत् के मध्य में (सोमी) अनेक प्रकार के ऐश्वर्य्य से युक्त है (तम्) उसको शत्रु लोग (न) नहीं (जिनन्ति) जीतते हैं (बहवः) अनेक (दभ्राः) नाश करनेवाले (न) नहीं नाश करते हैं (अस्मै) इसके लिये (अदितिः) माता (उरु) बहुत (शर्म्म) सुख को (यंसत्) देती है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो शत्रुरहित परमेश्वर की उपासना करने और सब के प्रिय साधनेवाले जन होते हैं, उनको कोई भी शत्रु जीत नहीं सकता है और जैसे माता वा श्रेष्ठ गृह को प्राप्त होकर मनुष्य सुख का आचरण करता है, वैसे ही सब सुखों को प्राप्त होकर निरन्तर आनन्दित होता है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! य इन्द्रे प्रियः सुकृज्जनेषु प्रियः प्रियेषु मनायुर्धर्म्येण प्रियो विद्यासु सुप्रावीर्विद्वत्सु प्रियोऽस्य जगतो मध्ये सोमी वर्त्तते तं शत्रवो न जिनन्ति बहवो दभ्रा न हिंसन्त्यस्मा अदितिरुरु शर्म यंसत् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) (तम्) (जिनन्ति) जयन्ति। अत्र विकरणव्यत्ययः। (बहवः) अनेके (न) (दभ्राः) हिंसकाः (उरु) बहु (अस्मै) (अदितिः) माता (शर्म) सुखम् (यंसत्) ददाति (प्रियः) योऽन्यान् प्रीणाति सः (सुकृत्) सुष्ठु सत्यं कर्म्म करोति सः (प्रियः) प्रीतिकरः (इन्द्रे) परमैश्वर्य्ये (मनायुः) मन इवाचरति (प्रियः) हर्षशोकरहितः (सुप्रावीः) सुष्ठु शुभगुणप्राप्तः (प्रियः) कमनीयः (अस्य) (सोमी) सोमो बहुविधमैश्वर्य्यं विद्यते यस्य सः ॥५॥
भावार्थभाषाः - येऽजातशत्रवः परमेश्वरोपासकाः सर्वप्रियसाधका जना भवन्ति तान् कोऽपि शत्रुर्जेतुं न शक्नोति यथा मातरं श्रेष्ठं गृहं वा प्राप्य मनुष्यः सुखयति तथैव सर्वाणि सुखानि प्राप्य सततं मोदते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे अजातशत्रू, परमेश्वराचे उपासक, सर्वांचे प्रिय करणारे लोक असतात त्यांना कोणी शत्रू जिंकू शकत नाही. जशी माता किंवा उत्तम घर प्राप्त करून मनुष्य सुखाचे आचरण करतो, तसेच तो सर्व सुख प्राप्त करून सतत आनंदाने राहतो. ॥ ५ ॥